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विडम्बना / महेन्द्र भटनागर
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हमने
जीवन भर
हाँ,
जीवन भर
मन की हर क्यारी में
सहज खिलाये
भावों के सुरभित फूल !
हमने
जीवन भर
हाँ,
जीवन भर
मन के निस्सीम गगन में
उन्मुक्त उड़ाये
अनिंद्य कल्पनाओं के
बहुरंगी दिव्य दुकूल !
हमने
जीवन भर
हाँ,
जीवन भर
मन की गहरी-से-गहरी
उपत्यका में
वैदग्ध्य विचारों के
सूरज चाँद उगाये
कर दूर तमस आमूल !
पर,
हाय विधाता !
यह कैसी अद्भुत भूल ?
घेरे तन को
अनगिनत नागफाँस नुकीले शूल,
अविराम थपेड़े झंझा के
उपहारों में देते
वंध्य विषैली धूल !
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