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अभिषेक / महेन्द्र भटनागर

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माना, अमावस की अँधेरी रात है,
पर, भीत होने की अरे क्या बात है ?

एक पल में लो अभी —

जगमग नये आलोक के दीपक जलाता हूँ !

माना अशोभन, प्रिय धरा का वेष है
मन में पराजय की व्यथा ही शेष है,

पर, निमिष में लो अभी —

अभिनव कला से फिर नयी दुलहिन सजाता हूँ !

कह दो अँधेरे से प्रभा का राज है,
हर दीप के सिर पर सुशोभित ताज है,

कुछ क्षणों में लो अभी —

अभिषेक आयोजन दिशाओं में रचाता हूँ !