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वंचना / महेन्द्र भटनागर
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जिसको समझा था वरदान
वही अभिशाप बन गया !
चमका ही था अभिनव चाँद
गगन में मेघ छा गये,
महका ही था मेरा बाग
कि सिर पर वज्र आ गये,
- जिसको समझा था शुभ पुण्य
- वही कटु पाप बन गया !
जिसको पा जीवन में स्वप्न
सँजोये ; व्यंग्य अब बने,
जगमग करता जिन पर स्वर्ण
वही अब क्षार से सने,
- जिसको समझा था सुख-सार
- वही संताप बन गया !