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युग-यथार्थ / मुकेश निर्विकार

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सत् असत् और सदाचार/अपनाने का भी
एक निश्चित मानक होता है
युग के औसत ढर्रे के अनुरूप ही
अपनाई जाती हैं/अच्छाइयाँ और बुराइयाँ
बुराइयाँ जब किसी युग में
सुखद् जीवनयापन की,
अनिवार्य शर्त बन जाएँ
और अच्छाइयाँ/कदम-कदम पर
अडचन डालती हों,
जीने की राह में,
कुदरत भी जब/समय रहते
पुरस्कृत न करती हो
सदाचारी को
और दुराचारी का/अध:पतन भी
स्थगित हो/उम्र भर के लिए
जब साधुओं का परित्राण
और पापियों का विनाश
न मिले देखने को/जीते जी इस जनम में
तो बताओ/कलियुगी इंसान
फिर किसका चुनाव करे?

इस युग में रिश्वत न लेना
मेरे अच्छाई नहीं, बल्कि विकलांगता है,
ईमानदारी और सदाचार
कलियुग के सौतेले पुत्र हैं
सत्य भी इन्हीं के साथ
जंगलों में निर्वासित हैं
सत्ता पर तो यहाँ केकैई की
कुटिल चालों का/राज है,
और सब कुछ देखते-भालते भी
आप युगों पुरानी कथाओं में
खोये नाहक ही/इस युग-यथार्थ को
झुठलाने पर तुले हो!