भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रो रही बरखा दिवानी / शैलेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:04, 21 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलेन्द्र शर्मा |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रात के पहले प्रहर से
रो रही बरखा दिवानी
हो गई है भोर लेकिन
आँख का थमता न पानी
आ गई फिर याद निष्ठुर
चुभ गये पिन ढ़ेर सारे
है किसे फुर्सत कि बैठे
घाव सहलाये-संवारे
मन सुनाता स्वत: मन को
आपबीती मुँहजबानी
नियति की सौगात थी
कुछ दिन रहे मेंहदी-महावर
किन्तु झोंका एक आया
और सपने हुए बेघर
डाल से बिछुड़ी अभागिन
हुई गुमसुम रातरानी
कौंधती हैं बिजलियाँ फिर
और बढ़ जाता अँधेरा
उठ रहा है शोर फिर से
बाढ़ ने है गाँव घेरा
लग रहा फिर पंचनामा
गढ़ेगा कोई कहानी.