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ग्रहण / महेन्द्र भटनागर

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आज मेरे सरल चांद को किस

ग्रहण ने ग्रसा है ?

आज कैसी विपद में विहंगम

गगन का फँसा है ?

मौन वातावरण में बिखरतीं

उदासीन किरणें,

रंग बदला कि मानों उठी हो

घटा घोर घिरने !

दूर का यह अँधेरा सघन अब

निकट आ रहा है,

गीत दुख का, बड़ी वेदना का

पवन गा रहा है !

अश्रु से भर खड़े मूक बनकर

सभी तो सितारे,

हो व्यथित यह सतत सोचते हैं

कि किसको पुकारें ?

साथ हूँ मैं सुधाधर तुम्हारे

मुझे दुख बताओ,

हूँ तुम्हारा, रहूँगा तुम्हारा

न कुछ भी छिपाओ !