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चांद और पत्थर (1) / महेन्द्र भटनागर

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चांद तुम पत्थर-हृदय हो !

व्यर्थ तुमसे प्यार करना,
व्यर्थ है मनुहार करना,
व्यर्थ जीवन की सुकोमल भावनाओं को जगाना,

जब न तुम किंचित सदय हो !

व्यर्थ तुमसे बात करना,
और काली रात करना,
प्राणघाती, छल भरा, झूठा तुम्हारा स्नेह बंधन ;

चाहते अपनी विजय हो !

फेंक कर सित डोर गुमसुम,
देखते इस ओर क्या तुम ?
स्वर्ग के सम्राट, नभ-स्वच्छन्द-वासी ! रे तुम्हें क्या ?

सृष्टि हो चाहे प्रलय हो !

सत्य आकर्षण नहीं है,
सत्य मधु-वर्षण नहीं है,
सत्य शीतल रुपहली मुसकान अधरों की नहीं है !

तुम स्वयं में आज लय हो