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चांद और पत्थर (2) / महेन्द्र भटनागर

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चांद तुम पत्थर नहीं हो !

है तुम्हारा भी हृदय कोमल,
स्नेह उमड़ा जा रहा छल-छल
हो बड़े भावुक, बड़े चंचल,

इसलिए, मेरे निकट हो,
प्राण से बाहर नहीं हो !

राह अपनी चल रहे हो तुम,
आँधियों में पल रहे हो तुम,
शीत में हँस गल रहे हो तुम

इसलिए कहना ग़लत है —
‘तुम मनुज-सहचर नहीं हो !’

हो किसी के प्यार बन्धन में,
हो किसी की आश जीवन में,
गीत के स्वर हो किसी मन में,

सोच इतना ही मुझे है —
हाय, धरती पर नहीं हो !