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प्रण / ईश्वर करुण

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वक्र सामाजिक मान्यताओं में
घुटकर रह गयी है
मेरी वेदना
और
आकुल अभिव्यक्ति.
नित नूतन
इस वृद्ध का ने
परिस्थितियों की जंजीर से
जकड़ दिया है
मेरे मन-प्राण को
अस्मिता की भूल-भुलैया में.
छाती पर निरंतर
लटक रहे हैं
अभाव,
समस्या और
अनुत्तरित रक्त्वीर्यवंशी
प्रश्नों के त्रिशूल
कागज पर फैलाही स्याही पीकर
विद्वता का दंभ भरने वालों ने
अपनी टपकती लारों की
कालिख से
कागज रंगे हैं
(कागज का कोई कोना कोरा नहीं है)
हर कैनवास पर
पाँवों के चिन्ह पड़े हैं,
मेरे बिम्ब टूट रहे है.
सिर्फ एक चिथड़ा
मेरे मुमूर्षु अंतर ने
जाने किस अंतिम क्षण के लिए
बचा रखा है
इस छोटे से
अंधे आकाश में
सूरज की प्रतीक्षा है
जब मानवता की आँसुओं की बूंदों में
मैं अपनी आशाओं की
जली चिता के
कोयले घिस कर,
लिखुंगा .....
गीत नव-निर्माण का.