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यक्ष आवाहन / ईश्वर करुण

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यक्ष तुम आओ न !
पक्ष या विपक्ष में.
पूछो न कुछ सवाल,
जो हमारी अस्मिता से जुड़े हैं.
और बताओ न!
कौन है उनका उत्तर देने वाला.
मैं भौचक हूँ – यहाँ कोई स्वयं को
‘कौरव’ नहीं मानता
किन्तु ये कठिन कार्य होगा
तेरे लिए भी,
क्योंकि खोजना पड़ेगा पहले पांडव
फिर धर्मराज को,
फिर भी तुम्हारे पास ही तो मान दंड है
किसी व्यक्ति को
धर्मराज की ऊंचाई से मापने का।
अब छोड़ो भी रामगिरि
कौन ले जाएगा तुम्हारे कामार्त मन के संदेश?
यहाँ बादलों की कौन कहे
पहाड़ों को भी अपनी पड़ी है,
वे तुम्हें अपनी पथरीली छाती पर
अब फटकने तक नहीं देंगे--
प्रेम-रस को अपने में उतारने की जुगुप्सा में,.
तुम्हारा आवाहन इसलिए कि
मेरी कमजोर जिव्हा, बेरोजगारी से
ऐंठी अंतरियाँ,
विषमताओं की चकाचोंध में
पथराई आँखे
कुछ पहचान पाने में अक्षम होकर
निर्वासित है.
और मैं तुम्हारी जगह निर्वासन के दिन
काटूँ भी तो कैसे?
मैं तो ‘कांताहीन’ हूँ
तुम्हारी तरह कोई संदेश तक नहीं मेरे पास
मुझे तो स्वयं प्रतीक्षा है उस ‘संदेश’ की
जो ऐंठी अंतरियों को रोटियाँ पहुंचाये
मेरे कान अब तुम्हारी ओर लगे हैं
मृतप्राय मैं केवल टुक-टुक देखने के लिए जगा हूँ
जबकि आँखों में अनगिनत सपने टंगे हैं?
मेरे पैर अब भी
चलने के लिए तत्पर हैं
धर्मराज के पदचिन्हों पर
तुम केवल पहचान तो बता दो न
कौन हैं धर्मराज !
यहाँ तो बिना अनुमति के
किसी का जल तो क्या
खून तक भी पीने लगे हैं लोग
ऐसे रक्त पिपासुओं के लिए आओ न !
मेरा ‘धर्मराज’ क्या मेरे ही अंदर है ?---
यह भी तो बताओ न !
यक्ष तुम आओ न .....।