पंक्तियों में सिमट गया मन (कविता) / ईश्वर करुण
मन के विस्तार को
आकाश की नई
होती आवश्यकता
आकाश किसी मन में
सिमानते के लिए होता भर है,
आकाशों की भरमार
हुआ करती है मन में
क्योंकि मन है कि
टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटकर
मेरे तुम्हारे उसके आकाश को
लील जाता है.
और लेता है पचा भी
किन्तु मन का विस्तार
बारह खड़ी के टेढ़े-मेढ़े अक्षरों की
छोटी-छोटी पंक्तियों में
समाने को रहता है तत्पर
और विवश भी
और पंकित्यों है कि
अलग-अलग अपने आकाश का
विस्तार करने लगती है
जिसमें समा जाती है।
वेदनाओं की घनीभूत
अभिव्यंजना वाली नीहारिकाएँ
सुखों के जाने कितने सौर-मण्डल
सौरमण्डल के जाने कितने –कितने ग्रह
लगते हैं लगाने चक्कर
मैं उन्हीं पंक्तियों की सीढ़ियाँ
तय कर जाना चाहता हूँ
तथाकथित स्वर्ग में.
जो सातवें आकाश के
ऊपर है कहीं शायद
या फिर सात तलों के नीचे
कहीं किसी कोने में पड़े
निर्वासित सुख की खोज में
मेरी पूंजी हैं पंक्तियाँ
उन्हीं में सिमटा है मेरा मन
और मना में सियाकड़ों हजारों
आकाश समेटे
जीने को अभिशापित हूँ मैं.
मैं अगर मर गया तो
उन पंक्तियों की भ्रूण-हत्या हो जायेगी,
और लगेगा भरने संसार में शून्यता।
इसलिए मैं जीऊँगा
तुम भी जीना मेरे मित्र।
लिखना कुछ पंक्तियाँ....
और समेटना मन को.... आकाश को।