भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदमकद / ईश्वर करुण

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:10, 28 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ईश्वर करुण |अनुवादक= |संग्रह=पंक्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भूख से अधमुँदी
याचना करती आँखे
फैलती सिकुड़ती
एक आशा लिये
अदने से उस अधमुए आदमी की थीं।
उसने फैला दी अपनी हथेलियाँ
बताया, दो दिनो से
कुछ खाया नहीं था,
मुझे वह मेरा हिंदुस्तान लगा,
और
मैंने बड़े जतन से
बिटिया की फटी फ्राक
बदलने की जुगाड़ में बचाई
‘दो टाकिया
रख दिया उसकी सूखी हथेली पर
हथेली रूखी ही रही
किन्तु भेज दिया संदेशा
उसकी अंतरियों को
उसकी भूख को दबाकर
आँखों में उग आया
आशा का पिलपिला-सा बिड़वा।
पुन; आगे बढ़ा तो मिला
आस्था के संकट में जीवित
बापू की अधमैली खादी में लिपटा
कंधे पर अंगोछा रखे
अदना-सा ही एक आदमी
उसने फैला दिया अपना अंगोछा
बताया-
दो दिनों में विकास को
हमारी चेरी बनाना चाहता है
मुझे वह भी मेरा हिंदुस्तान लगा
और
मैंने जतन से बचाकर राखी
लोकतंत्री पूंजी ‘वोट’
उसके अंगोछे में दाल दिया
इस आशा में की मेरा बेटा
रोटियाँ खा सकेगा कल
उसका अंगोछा अधमैला ही रहा
लेकिन भेज दिया संदेशा
उसकी मूछों को,
उसकी मूछें ताँती चली गयीं
वह खास बन गया,
विकास का बिड़वा
उसके तलवे तले दब गया

कल
मैंने अपनी पगड़ी रख दी
उसके ‘नार्थ स्टार’ पहने पाँवों पर
माँग ली अपने हिंदुस्तान के लिए
थोड़ी-सी शांति की भीख
फिर क्या था
मेरी याचना पर
वही नहीं
उसकी पूरी बिरादरी हो गई अशांत
उसके कारिंदों ने
मुझे उठाकर फेंक दिया
मैं अपने ‘हिंदुस्तान’ पर गिरा
धूल झाड़ी, उठ खड़ा हुआ
‘हिंदुस्तान’ के स्पर्श से
चमत्कार हो गया
नुझे मेरा कद बढ़ता दीखने लगा,
अरे, मैं याचक नहीं
दाता हूँ सिर्फ दाता,
मैं प्रतीक्षा में हूँ अब
अपने कद के थोड़ा और बढ़ जाने तक
ताकि मैं स्वयं में
एक ‘हिंदुस्तान’ बन सकूँ
विकास को गढ़ सकूँ।