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फिर दरख्तों के साये सिमानते लगे / ईश्वर करुण
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फिर दरख्तों के साये सिमटने लगे
आईने फिर कहीं पर चिटखने लगे।
बाँध पाँवों में पायल, समय का कोई
आईने को चिढ़ा, चल पड़ा शाम को।
देख दुस्साहसी को गहराई निशा
तारे भी तम से गठजोड़ करने लगे।
पोत कालिख निराशा के हर ठाँव पर
मील-स्तम्भ जब लीलने हम लगे।
झोपड़ी के लिए थी लड़ाई मेरी
पर कई इन्द्र के दिल धड़कने लगे।