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संगम / ऋषभ देव शर्मा
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याद आता है समय
तुमने कहा जब
लो, चलो, हम आज मिलते है
दो पानियों जैसे,
और हम तुम मिल गए
गंगो –जमन से;
एक धारा बन गए थे ।
घुल गया
तुम्हारे गौर वर्ण में
मेरे कंठ का सारा नीलापन,
उतर आया
हमारे भीतर आकाश का विस्तार
और समा गया
समुद्र की गहराई में ।
अब हम धारा नहीं रहे थे ,
समुद्र थे –
पानी ही पानी ,
नाम-गोत्र से हीन पानी;
न घट, न तट –
बस पानी ही पानी,
न देह ,न गेह –
बस पानी ही पानी,
न तुम, न मैं,
पानी ही पानी !