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ऑलमोस्ट डाइड / नवीन रांगियाल

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कभी-कभी
इस बेनूर से जिंदगी में चुपके से जीना पड़ता है
इतना धीरे से कि आसपास पता भी न चले कि साँस चल भी रही है या नहीं

हम अपनी ही देह को निस्तेज और निढाल पड़ा देखते हैं
दूर कहीं सुनसान में
हवा में

हम ऐसे रह गए यहाँ
जैसे कोई छोड़ दी गई जगह
न कोई बस्ती और न ही कोई खरपतवार
मन मेरा बसता भी नहीं कहीं
उजड़ता भी नहीं

दिल्ली में चौंसठ खंभा से कुछ ही दूरी पर
हजरत निजामउद्दीन के पास ग़ालिब की सूनी कब्र की तरह हैं हम
जहां सूखे हुए गुलाब के फूल उड़ते हों बगैर ख़ुशबू के
पीपल के सूखे पत्तें गर्मियों के दिनों में सरसरा जाते हों दरगाह के फर्श पर जैसे
बारिशों में भीग- भीगकर स्याह काले हो जाते हैं पत्थर जहाँ

कोई शायर भरी महफ़िल में अपनी याददाश्त खो बैठे
शेर याद आए तो मिसरा भूल जाए
या फैज़ का कोई शेर हवा में अटक जाए
ऐसे कि जिसे वाह भी और आह भी न मिले

कभी-कभार
हम ख़ुद ही अपनी कलाई पकड़ नस दबाकर देख लेते हैं

किसी के पास हकीमी हुनर हों तो आए और देखे
हम है कि नहीं
कोई आए और नब्ज़ टटोल लें
कोई बताएकि मैं हूँ कि नहीं
बताए कि तुम हो कि नहीं हो

तुम, हाँ, तुम ही
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मृतप्रायः