भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सर्वहारा का वक्तव्य / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:49, 15 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=जूझते हुए / महेन्द्र भटनागर }} ...)
लोग
हमारी भाषा में
बोल रहे हैं,
- यह सच है।
- यह सच है।
सारे वे ख़ौफ़नाक शब्द
आज गूँज रहे हैं
संसद में
नेताओं के वक्तव्यों में
- यह सच है !
- यह सच है !
अरे, हमारे नारे
लगा रहे तुम भी ?
अचरज
- पर, सच है।
- पर, सच है।
हलचल / तत्परता
आज अचानक
लोग
हमारे अर्गल
खोल रहे हैं,
- यह सच है।
- यह सच है।
आला-आला अफ़सर
आज
अँधेरी झोपड़ियों में
जा-जा
दुख दर्द हमारे
पहली बार
टटोल रहे हैं,
- यह सच है।
- यह सच है।
लगता है —
‘क्रांति’ उभर आयी है !
गाँवों में
नगरों में
‘जनवादी’ फ़ौज़
उतर आयी है !
कैसा अद्भुत
जन-आन्दोलन है !
सत्ता-लोलुप नेताओं में
- रातों-रात
- हुआ परिवर्तन है !
- रातों-रात
अथवा
यह स्व-रक्षा हित
केवल आडम्बर है,
छल-छद्म भरा
मिथ्या संवेदन-स्वर है।