भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बया / मुकेश प्रत्यूष

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:02, 10 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकेश प्रत्यूष |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बया परेशान है :
उसके बच्चे
-उसका कहा नहीं मानते चुपचाप

बया चाहती है :
उसके बच्चे सीख जाएं
ठीक उसी की तरह तिनके-तिनके जमाकर
सुंदर-सुंदर घोंसले बुनना

बया चाहती है :
उसके बच्चे सीख जाएं
ठीक उसी की तरह हवा और मौसम का रुख देखना
और, अपने पंखों को तौलना

बया चाहती है :
उसके बच्चे सीख जाएं
ठीक उसी की तरह लम्बी उम्र जीने की हर संभव कोशिश करना

किन्तु, बया के बच्चे उठाते हैं प्रश्न हर सीख पर
चाहते हैं : खिलाफ हवा में भी
उंचे-उंचे उड़ना

बया के बच्चों ने की है आजमाईश
अपनी नई-नई चोंच की - घोंसले की दीवारों पर
जाने-अनजाने कर दिए हैं कई-कई सूराख
उन्हीं से देखते हैं - धूप का निकलना और खिलना
रुक-रुक होती बारिश में
बूंदों का टपा-टप टपकना

बया परेशान है :
उसके घोंसले में भी अब चली आएंगी
सर्द और गर्म हवाएं बेखटके