भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अर्थशास्त्र की मरूभूमि में / हरीश प्रधान

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:17, 11 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश प्रधान |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूख रही कविता की धारा
ठौर-ठौर
आकर्षण रहता
बौराया-सा मन रहता था
प्‍यार!
सभी कुछ था जीवन में
धन दौलत
का अर्थ नहीं था
आँखों ही आँखों में
गुपचुप
सारी व्यथा कथा कहता था
रूप!
तुम्‍हारा छाया रहता-
गीत-गज़ल कहता रहता था
धन का शास्त्र
पढ़ा है जब से
कवि!
बे अर्थ हुआ बेचारा
अर्थशास्त्र की
मरूभूमि में
सूख रही कविता की धारा
ढाई आखर की
दुनिया में
गुरु का ज्ञान समाया रहता
हर क्षण कविता
मुखरित होती
हर क्षण ही
बौराया रहता
रुप!
तुहारा जीवन धन था
मस्ती भरा हुआ यौवन था
दिल की दुनियाँ का राही
कदम-कदम रंगीन सपन था
अर्थशास्त्र की
पोथी पढ़कर
प्‍यार!
शुद्ध व्यापार हो गया
कभी हुआ करता था दिल ये
अब दुकान हुआ बेचारा
अर्थशास्त्र की मरूभूमि में
सूख रही कविता की धारा!