भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फल्गुतट: तीन सानेट / कुबेरनाथ राय

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:14, 18 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुबेरनाथ राय |अनुवादक= |संग्रह=कं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूख रही नदी अनावृत, नग्न और निर्जन तट
यह उदास कंकाल सृष्टि का, कालपुरुष की भाषा
जेठ दुपहरी दूर-दूर तक फैली हुई निराशा
कई, दलदल, कीट कुछ नहीं शेष नहीं कोई तलछट।

यह थकान यह तीव्र पिपासा इसी रेत को कर दो अर्पित
मित्र, करोगे क्या आखिर यह पथ ही है बन्ध्या
वीतराग निर्वेदमयी सब जेठ दुपहरी पावस संध्या
सारी ममता और सफलता करो इसी को सहज समर्पित।

मधुपायी वे मीत अनेको सब अपने से छले गये
वह कवि भी जिसने शैल बालिका का निर्मल तप देख
वे सबके सब जो तृषा लिए आये चले गये
चाक्षुष या वह भी जिसने नापी यह अंधी पथरेखा।
सब भ्रान्त रहे सोचे, उस पार हमारी भूख प्यास को धवती
इसीलिए यह पड़ी रही, रही शापग्रस्त जीवन की परती।

[ 'आवेग' से ]