ग्रीष्म में महाकाव्य / कुबेरनाथ राय
पवन-वधू ग्रीष्मा इन ताल पत्रों पर
विजयी घुड़सवारों का स्तवगान लिख गयी।
पत्ते खरभर कर उठे, बोलने लगे मुक्तकण्ठ
हरहराते रथ जैसे हाहाकारमय स्तोत्र और गान
शाखों पर बैठे गृद्धगण पुलकित पंख फुला बैठ गये
गोया युद्धक विमानों की महफिल ही बैठ गयी हो!
किसी वियतनाम के शीश पर।
योद्धाओं का कीर्ति-छप्पय गाता रहा
हरहराते रथ जैसे कीर्ति के कवित्त-छन्द
आदिम अरण्य ताल-पत्रों पर व्यक्त होते रहे
ग्रीष्मा पवन वधू किसी महाकवि के हृदय जैसा
पर्व-प्रतिपर्व भुजा उठा हाहाकार करती रही।
और सबने कहा,
आज सांझ पछुआ बड़ी झकझोर कर बही।
सुनता रहा एक नाम! तुम्हारा ही नाम बार बार!
बाहर सारी प्रकृति करती रही
अनाम जयगान, हाहाकार
पर मुझे लगा कि यह अकाल बेला है
समय है प्रतिकूल, अतः मौन कण्ठ
मैंने तुम्हें स्मरण किया बारबार!
लिखा तुम्हारा ही नाम
बार-बार!