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सुखावती : उर्वशी / कुबेरनाथ राय

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तुम्हारे महासुख का महार्थ उपसंहार
उर्वशी!
तुम्हारी रात का यह सरल सीधा भोर!
इसे शतबार नमन!

रात अंग-प्रतिअंग तरल वारिधार चपल
रात दूध सी स्वादिष्ट
रात, सांवरी कोमल गात-श्याम कुंतलकेश!
मैं डूब-डूब साधता रहा योग
खोजता रहा अंग-प्रति अंग अनुपम अनुप्रास
उपमाएँ उत्प्रेक्षायें आदिम अघोर लीलाओं की
खेलता रहा रात के अभ्रक पाश में गांठ प्रति गांठ
उद्घाटित करता रहा सम्पुट-प्ररह-मणिदीप,
शंख और मीनमुख, काई शैवाल और प्रवाल
मैं मथता रहा अंधकार ढूँढ़ता समुद्र-फल
पीता रहा देह-तमसा का फेन
रात-भर-रातभर
प्रमत्त और ऊभ-चूभ

उर्वशी, काम-शरहा उर्वशी,
मैं रातभर सुनता रहा, तुम्हारे रशना दाम
काम-कूजन में

अपनी ही जन्मान्तर अनुभूतियों की बिक्षिप्त
स्रगधरा, विकल विक्रीड़ित शार्दूल एवं
अनुष्टुप छन्द-बन्धों को, रातभर-रातभर!
पीता रहा देह-तमसा का फेन
प्रमत्त और ऊभ-चूभ।

बीती वह विह्वल रात, हुआ प्रात
सहज सुन्दर सीधा सरल प्रात!
चक्षुयें, मस्तक में, बाहर काक-कोकिल में
उतरा भोर
चहुँ ओर
उर्वशी, तुम्हारी ही रात का यह प्रसव सुन्दर
देवोपम सरल यह भोर
लक्ष-लक्ष सूर्य कन्याओं से स्तुतिगान
मंत्र-गम्भीर
कलराटेयुक्त भोर!
मुझे कर गया हलका विरंज-विशुद्ध यह भोर
मैं रातभर पीता रहा 'शाँक' पर 'शाँक'
सहस्र-सहस्र प्रजापति कन्याओं की
जंघाओं-नाभियों-मणिकूटों की
विद्युत् तरंगों के आवाहन-मय 'शाँक'!
मैं तथागत तीर्थंकर (या कपिमुख विदूषक)
एवं तुम्हारी प्रमत्त-विमत्त रात में जब
जब हम दोनों परस्पर पीते रहे
तमसा का दूध और तमसा की वारुणी
पीते रहे परस्पर करते रहे रिक्त
और तभी आयी यह भोर
और मुझे सहज खाली पात्र मानकर
बरसाती गयी किरण, पूर्ण करती गयी मुझे
और मैं हुआ लबालब ज्योतिपात्र
एक सहज मानुष दीप
एक आत्मदीप
उर्वशी तुम्हारी यह रात
आशीर्वाद दे गयी।