भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन पंछी बहुत अकेला है / भावना तिवारी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:28, 30 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भावना तिवारी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चारों ओर रोशनी,
फिर भी, भीतर बहुत अँधेरा है
ऊँचे टीले पर बैठा
मन पंछी बहुत
अकेला है!

धूल, धुआँ,
धूप के साए
कंकरीट से रिश्ते पाए
हवा विरोधी, आपाधापी
छाया में भी, तन जल जाए
क्या पाना था? क्या पाया है?
ख़ुद को कहाँ,
ढकेला है

प्लेटफ़ॉर्म पर
खड़े रह गए,
छूट गईं सब रेलगाड़ियाँ
भोलापन खा गई तरक्की
सीख गए हम कलाबाज़ियाँ
बजा सीटियाँ, समय ने जाने
खेल कौन-सा
खेला है?