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जीवन का रेखागणित / गौरव गिरिजा शुक्ला

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बहुत प्रयास से
अपनी ख्वाहिशों की त्रिज्या को बढ़ाते हुए
मेरा जीवन वृत्त
अपनी परिधि में बढ़ रहा था।
तभी अनन्त से आती हुई
एक सरल रेखा की तरह
तुमने, मेरे जीवन को छुआ।
एक स्पर्श रेखा की तरह मुझे छूकर
तुम फिर से अनन्त की ओर बढ़ गईं।
लेकिन मुझे लगता है
कि मेरी परिधि पर जहाँ तुमने स्पर्श किया
उसके मायने अत्यंत महत्वपूर्ण हो गए।
इतने अहम कि शायद केंद्र से भी ज्यादा।
ऐसा लगता है कि सम्पूर्ण जीवन
उसी पल में जी लिया हो।
सारी ज़िन्दगी अपने सपनों, उम्मीदों
और अनेक अपेक्षाओं को
केंद्र में रख कर
संघर्ष की त्रिज्या बढ़ाते हुए
वृत्त को निरन्तर नया आयाम देता आया था मैं
अपने बढ़ते दायरे से मुझे बहुत ख़ुशी होती थी
और तुमसे मिलने के पहले
कभी खुदा से शिकायत नहीं की।
लेकिन तुमसे मिलना
और जुदा हो जाना,
इस बात से ख़फ़ा हूँ मैं।
इतना ख़फ़ा कि कभी-कभी
अपने अस्तित्व पर सवाल करने लगता हूँ।
लगता है काश ईश्वर ने
मुझे भी एक सरल रेखा बनाया होता
उसी कोण में जिसमें तुम सफर कर रही थी,
और दूर अनंत से आती हुई
तुम मुझमें समा गयी होती।
अच्छा माना कि मेरा भी अपना वजूद है,
या कहें प्रारब्ध भी
कि अगर मुझे वक्रीय होना था,
तो वृत्त की जगह परवलयाकार होता,
कम से कम तुमने जहाँ छुआ वो हिस्सा
एक बिन्दू से कुछ ज़्यादा होता...
या फिर तुम्हें रेखा और मुझे वृत्त ही होना था
तो कम से कम तुम व्यास होती,
मेरे केंद्र से मेरी परिधि को नापती हुई।
खैर जाते जाते जाते तुमने
मुझे आशावादी होना सिखाया है,
इसलिए ये सोचकर खुश हो जाता हूँ
कि कम से कम तुमको छू पाना
तो मेरी किस्मत में था,
लेकिन वो एक हिस्सा जहाँ तुमने स्पर्श किया
उस अधूरे चाप की कीमत
मेरे वृत्त की सम्पूर्णता से कहीं अधिक है...