भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जंगल / विजया सती
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:14, 21 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजया सती }} मेरी सुबह खो गई है मेरी शाम खो गई है और अब द...)
मेरी सुबह खो गई है
मेरी शाम खो गई है
और अब
दोपहरी धूप का अम्बार है- मैं हूँ जिसकी कोई पहचान नहीं!
मेरी सादगी खो गई है
मेरी सरलता खो गई है
और अब ढेर-ढेर संशय के तूफ़ान हैं- मैं हूँ जिसकी कोई राह नहीं!
मेरे शब्द खो गए हैं
उनके अर्थ खो गए हैं
और अब गूँजते हुए प्रश्न हैं- मैं हूँ कहीं कोई उत्तर नहीं!
सनसनाता एक जंगल है
जिसमें मैं बिल्कुल खो गई हूँ!