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हर महफ़िल में उनके ही अफसाने हैं / पुष्पेन्द्र ‘पुष्प’

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हर महफ़िल में उनके ही अफसाने हैं
मेरे ग़म से जैसे सब अनजाने हैं

ख़्वाबों की नगरी में हलचल है लेकिन
ताबीरों की दुनिया में वीराने हैं

तन्हाई के सहरा में चलते चलते
उल्फ़त के कुछ काम अभी निबटाने हैं

अक्सर उन सपनों में खोया रहता हूँ
आख़िर को जो मुझमें ही खो जाने हैं

मय से तौबा कर लें सोचा था लेकिन
उस ज़ालिम की आँखों में मयख़ाने हैं