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रेत हो रहीं नदियाँ / गरिमा सक्सेना

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रेत हो रहीं नदियाँ
खोया कल-कल का उल्लास

सदियों तक जो
शक्ति रही है जन-जीवन की
तट को सींचा
प्यास बुझायी जिसने तन की

आज उसे बूढ़ी अम्मा-सा
मिला अकेला वास


जहाँ श्वेत धाराएँ कल
प्रतिबिंब उगाती थीं
चाँद और सूरज की किरणें
जहाँ नहातीं थीं

पोखर-नाले भी करते हैं
अब उसका परिहास

जन-जीवन ही भूल गया जब
अर्थ आचमन का
कैसे आयेगा फिर बोलो भाव
समर्पण का

राजनीति ने छला हमेशा
नदियों का विश्वास