भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज्यों-ज्यों सूरज निखर रहा है / हरि फ़ैज़ाबादी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:37, 25 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरि फ़ैज़ाबादी |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज्यों-ज्यों सूरज निखर रहा है
अँधियारे को अखर रहा है

पता नहीं क्यों सच कहकर वो
सच सहने से मुकर रहा है

थक तो गया सपेरा लेकिन
जोश साँप का उतर रहा है

सिर्फ़ एक ही ज़िद से सारे
घर का सपना बिखर रहा है

दुल्हन माला डाल चुकी, पर
दूल्हा उँगली कुतर रहा है

लाज ग़ज़ल की रखने में फिर
दर्द क़लम का उभर रहा है

तड़प रही है प्यासी धरती
अब्र घुमड़कर सँवर रहा है