भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब एक दीपक जल जाता है / अशोक रावत
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:05, 3 जनवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक रावत |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जब एक दीपक जल जाता है,
सोच में सूरज ढल जाता है.
खुश रहते हैं हम थोड़े में,
काम हमारा चल जाता है,
झुक कर चलने वाला जग में,
कैसा भी हो पल जाता है.
जिसमें होती है खुदगर्ज़ी,
कोई भी हो खल जाता है.
दिल से जब देता है कोई,
हर एक आशिष फल जाता है.
भर आती हैं उस पल आँखें,
जब कोई पल टल जाता है.
रह जाते है असली सिक्के,
खोटा सिक्का चल जाता है.
जल जाती है लेकिन इससे,
क्या रस्सी का बल जाता है.
जीना होता है जिसको भी,
एक साँचे में ढल जाता है.