भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाने, तुम कैसी डायन हो / नागार्जुन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:23, 29 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नागार्जुन |संग्रह=खिचड़ी विप्लव देखा हमने / नागार्जुन...)
जाने, तुम कैसी डायन हो!
अपने ही वाहन को गुप-चुप लील गई हो!
शंका-कातर भक्तजनों के सौ-सौ मृदु उर छील गई हो!
क्या कसूर था बेचारे का?
नाम ललित था, काम ललित थे
तन-मन-धन श्रद्धा-विगलित थे
आह, तुम्हारे ही चरणों में उसके तो पल-पल अर्पित थे
जादूगर था जुगालियों का, नव कुबेर चवर्ण-चर्वित थे
जाने कैसी उतावली है,
जाने कैसी घबराहट है
दिल के अंदर दुविधाओं की
जाने कैसी टकराहट है
जाने, तुम कैसी डायन हो!
(रचनाकाल : 1975)