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जाने, तुम कैसी डायन हो / नागार्जुन

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जाने, तुम कैसी डायन हो!

अपने ही वाहन को गुप-चुप लील गई हो!

शंका-कातर भक्तजनों के सौ-सौ मृदु उर छील गई हो!

क्या कसूर था बेचारे का?

नाम ललित था, काम ललित थे

तन-मन-धन श्रद्धा-विगलित थे

आह, तुम्हारे ही चरणों में उसके तो पल-पल अर्पित थे

जादूगर था जुगालियों का, नव कुबेर चवर्ण-चर्वित थे

जाने कैसी उतावली है,

जाने कैसी घबराहट है

दिल के अंदर दुविधाओं की

जाने कैसी टकराहट है

जाने, तुम कैसी डायन हो!


(रचनाकाल : 1975)