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फूट रही है कोंपलें / अरविन्द भारती

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मुर्दा जिस्मों में
हो रही हरकतें
घायल चेहरे
गा रहे गीत

नदियों ने कर दी
बग़ावत
समुंद्र में मची है
खलबली

अभी अभी अंधेरों ने
देखा है दिया
रात की आँखों में
खौफ की रेखा है
एक झोंका ताज़ा हवा का
फैला है फिजाओं में
बंजर जमीन पे
फूट रही है कोंपलें।