भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कान दीवारों के भी होते / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:11, 12 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बालगीत था लिखा रघु ने,
बैठ नदी के तीरे।
डरते-डरते बाथरूम में
गाया धीरे-धीरे।
था स्वभाव का वह संकोची,
बाहर कह ना पाया।
भनक न पड़ जाए लोगों को,
छुप-छुपकर था गाया।
यही गीत, पर जब मित्रो ने,
उछल-उछलकर गाया।
निकले बहुत छुपे रुस्तम हों' ,
कहकर उसे चिढ़ाया।
बाथरूम पर गौर किया तो,
अजब बात यह पाई।
दीवारों में कान लगे थे,
दिए साफ दिखलाई।
बात अचानक दादाजी की,
याद उसे तब आई।
' कान दीवारों के भी होते,
बिलकुल सच है भाई।'