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यादों की दरारें / मनीष मूंदड़ा
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अब कोई आता नहीं
इन बे-जि़न्दा दरवाजों पर
कभी इंतजार होता था यहाँ
कई रोज हुए
वह भी थक के लौट गया
दरवाजों पर बस अब यादों की दरारें हैं
राह तकती आँखों की बुझती परछाइयाँ चस्पाँ है
ना जाने कब बोलेंगे ये मूक दरवाजे
और ना जाने तब, कौन सुनेगा इनको?