भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम हो ही नहीं / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:51, 21 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनीष मूंदड़ा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बात उन लहरों की थी
जो मेरे अंदर उमड़ रहीं थी
पास आ के सुन पाते तो
तुम्हें अहसास हो जाता
बात उन लम्हों की थी जो
तुम्हारे साथ बिताए पलों का समावेश थे
मेरी आँखों में झाँकते तो
तुम्हें दिखाई दे जाते
पर तुम होते तो ना
तुम हो ही नहीं
फिर ये लहरें कैसी?
फिर ये लम्हें कैसे?