भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाँद सँग् नदी / संतोष श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:12, 23 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साँझ की उदास नदी में
जाती हुई नावों की आखिरी कतार
बिछल गया है अँधेरा
लहरों की रेशमी बिछावन पर

हवाएँ थरथराती नदी तक दौड़ी है
नदी की देह काँपी है
उस कंपन में एक आग है
नदी आग का घूंट पी
चांद को बाहों में लेने को आतुर है

पूनम का चांद
लहरों पर उतर आया है
आग का शोला बन
नदी का गर्भ आग से भर उठा है

रेत के कछारों में
रेत के घरौंदों में
रेतीले तटों में
उत्सव है आग का

आग के सुख में डूबी नदी
बूंद-बूंद उमड़ी है चांद की बाहों में
अंतिम बार प्रणयातुर

दहक उठी है पूर्व की दिशा तक
धीरे धीरे शांत मंथर नदी
निस्तेज चांद
भोर के सूरज संग
पीड़ा अशेष