भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे साथ / वेणु गोपाल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:09, 7 सितम्बर 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वेणु गोपाल |संग्रह=चट्टानों का जलगीत / वेणु गोपाल }} सतह...)
सतह से मैंने सिर ऊपर उठाया तो ख़ामोशी किस कदर हँस रही है!
मै बस के पायदान पर लटक के यहाँ से कहाँ जा रहा हूँ?
रविशंकर के सितार को
क्या कुछ और बुलंद नहीं हो जाना चाहिए था
लोरी सुनाते वक़्त?
तब मैं आकाश का नीलापन तो नहीं हो जाता
और स्टेज पर अंधेरा तो नहीं छा जाता खलनायक के आते ही।
मेरा घर ही था जो रहा मेरे साथ
ऎसे में।
(रचनाकाल : 04.08.1971)