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समारम्भ / वेणु गोपाल
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घर नींव में है। बीज़ में पेड़ होता है ज्यों।
घर भूमिका है। रिश्तों का पूर्व-कथन।
एक निश्चय है सुगबुगाता हुआ
हाथों के हाथ--धर्म निभाने की
शुरूआत करता हुआ।
अभी थोड़ी देर में पसीना टपकने लगेगा
तो एक ऎसा आंगन बन जाएगा
जिसमें फूल ही फूल बिखरे होंगे।
होंठों से श्रम-गीत भी
बस, फूटने ही वाला है और
तब
बनती हुई अंधेरी सीढ़ियाँ
छत की ओर जाते-जाते
ऎन बीच में
इन्द्रधनुष बन जाएंगी।
ऎसा इन्द्रधनुष
जो आज से कल के बीच में
पुल-धर्म निभाएगा।
एक विराट कुनमुनाहट जारी हो चुकी है।
चारों ओर। लोग, बस जागने ही वाले हैं।
(रचनाकाल : 05.01.1979)