भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घोड़ा - 2 / सरोजिनी कुलश्रेष्ठ
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:57, 11 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोजिनी कुलश्रेष्ठ |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
घोड़ा आता, घोड़ा आता,
बड़ी शान से पाँव जमाता।
कभी कहरवा कभी दादरा,
सधी ताल पर पाँव उठाता।
वीरों की यह बने सवारी,
बच्चों के मन को ललचाता।
भूरा, नीला, चितकबरा-सा,
घोड़ा सबके मन को भाता।