भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अरी गिलहरी रोयें वाली / मधुसूदन साहा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:46, 15 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुसूदन साहा |अनुवादक= |संग्रह=ऋष...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अरी गिलहरी रोयें वाली,
अपने में रहती मतवाली।

मुझसे क्यों इतना भय खाती,
आहट पा ऊपर चढ़ जाती।

बहुत बुलाता, किन्तु न आती,
कुतर-कुतर केवल फल खाती।

डरती हो तुम फल ले लूँगा,
अरी नहीं, टॉफी मैं दूँगा।

अच्छा लगता मुझे हमेशा,
रेशम-से रोयें का रेशा।

इसीलिए मैं रोज बुलाता,
आने पर जी भर सहलाता।

कभी नहीं तुम फिर भी आती,
मुझे देख ऊपर चढ़ जाती।

आओ तुमसे मैं खेलूँगा,
अपने बाँहों में ले लूँगा।

हम दोनों का संग अनूठा,
प्यार बिना सारा जग झूठा।