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भीषण गरमी / मधुसूदन साहा
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गरमी गरमी, भीषण गरमी
बढ़ती जाती हर क्षण गरमी।
कपड़े कुट्टी करते जाते,
तन पर पलभर नहीं सुहाते,
सूरज का आतंकी तेवर,
देख सभी भय से कतराते,
जाने क्या-क्या ले जाएगी,
बड़ी चतुर हैं रहजन गरमी।
नहीं सूखता कभी पसीना,
दूभर लगता ऐसे जीना,
घड़ी-घड़ी में सबको पड़ता,
दिनभर ठंढा पानी पीना,
तपे तवे पर बूँदों जैसी
हर पल करती छन-छन गरमी।
सूखे ताल-तलैया सारे,
बगुले भागे पंख पसारे,
इस जलते मौसम में सबके
ऊपर वाले ही रखवारे,
शायद शीतल मंद पवन से,
कर बैठी है अनबन गरमी।