भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बहुत कठिन हैं गरमी के दिन / मधुसूदन साहा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:41, 15 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुसूदन साहा |अनुवादक= |संग्रह=ऋष...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बहुत कठिन हैं गरमी के दिन
नहीं निकलना घर से बाहर।
चलती हवा बबूलों जैसी,
लू चुभती है शूलों जैसी
मुरझाई है सबकी सूरत
सुबह-सुबह थी फूलों जैसी,
किरणे अंगारे बरसाती
डंक मारती रह-रह दुपहर।
कुलफीवाला हाँक लगाता,
कीमत गरमी आँक लगाता,
सड़क किनारे सब्जीवाला,
तरबूज़ों की फाँक लगाता,
आँधी, अंधेड़, तेज हवाएँ
सब लगते सूरज के सहचर।
घर के अंदर नींद न आती,
बिना बताये बिजली जाती,
बाहर दादाजी अकलाते-
भीतर दादीजी अकुलाती,
चैन न आती है पलभर भी
सब करते हैं बाहर-भीतर।