Last modified on 9 सितम्बर 2008, at 16:24

एक नास्तिक के प्रार्थना गीत-8 / कुमार विकल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:24, 9 सितम्बर 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार विकल |संग्रह= रंग ख़तरे में हैं / कुमार विकल }} जीव...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जीवन भर की व्यथा—कथा को

कविता में कहना चाहा था

एक सुलगते वन का मैने

महाकाव्य लिखना चाहा था


लेकिन प्रभु जी, महाकाव्य से

जीवन जंगल बहुत बड़ा था

और हमारा जीवन जल भी

धीरे—धीरे सूख चला था


प्रभु जी , आओ मिलकर ऐसी

कोई नदिया ढूँढ निकालें

जिसके जल से एक सुलगता—

जंगल चंदन—वन बन जाए


कविता से भी बड़ी नदी का

जल मैंने पीना चाहा था

महाकाव्य से बड़ी को

शब्दों में रचना चाहा था