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घूरती हुई आँखें / अजित कुमार
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रात थी अँधेरी और
भूतों की टोली
पीपल के तले और
बेलों के झुर्मुट में
देती थी फेरी ।
‘भूतों से क्या डरना ।
आखिर तो हम सबको मरना है,
और भला क्या करना ।
हम जो कहलाते हैं भारत के पूत ।
-हम भी तो होयेंगे ऐसे ही भूत ।‘
इसी तरह सोच-सोच
हिम्मत बँधाई मैंने काँपते-से मन को ।
और तभी कमरे के किसी एक कोने में
दिखीं मुझे बेधती-सी चमकदार आँखें ।
काँपता-सा मन हुआ जैसे निस्पन्द ।
डर के मारे मैंने आँखें कीं बद ।