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घूरती हुई आँखें / अजित कुमार

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रात थी अँधेरी और

भूतों की टोली

पीपल के तले और

बेलों के झुर्मुट में

देती थी फेरी ।


‘भूतों से क्या डरना ।

आखिर तो हम सबको मरना है,

और भला क्या करना ।

हम जो कहलाते हैं भारत के पूत ।

-हम भी तो होयेंगे ऐसे ही भूत ।‘

इसी तरह सोच-सोच

हिम्मत बँधाई मैंने काँपते-से मन को ।


और तभी कमरे के किसी एक कोने में

दिखीं मुझे बेधती-सी चमकदार आँखें ।

काँपता-सा मन हुआ जैसे निस्पन्द ।

डर के मारे मैंने आँखें कीं बद ।


बीत गये कई सल …

लेकिन अब भि तो मेरा है वही हाल ।

एक उसी घटना को पाता मक़िं नहीं भूल ।

याद मुझे आती :

ज्यों आते थे याद वर्ड्सवर्थ को डैफ़ोडिल फूल ।

दीखतीं अँधेरे में हैं मुझको अब भी

चमकीली, तेज़, बेधतीं, सम्मोहन करतीं-

बिल्ली की दो आँखें …


अन्धकार पाप है । और

अज्ञान भी ।

लेकिन जिसको बेधें बिल्ली की आँखें-

रहकर अँधेरे में भी, प्प्प क्या करेगा वह-

घूरती हुई आँखों की स्थिति का ज्ञानी ।