कलाकृति,आत्मविस्मृति और प्रकृति-3 / अजित कुमार
प्रकृति
उजड़ा, अन्तहीन पथ ।-
जिसपर कोई कभी नहीं भटका था ।
- मैं जब उसपर चला,
मुझे मालूम हुआ-
कुशनों-क़ालीनों के फूलों पर चलना,
गुलदानों में लगे गुलाबों से
अपने मन को छलना ।
होगा ।
कुछ तो होगा ही ।
पर उन सबसे यह भिन्न ।
यही इस वन-पथ पर
खोया-खोया रह,
बिना किसी उद्देश्य भटकना ।
हर नन्हे जंगली पुष्प पर,
हर पंछी की विकल टेर पर
काफ़ी-काफ़ी देर
अटकना ।
पुनरावृत्तियाँ 1 (रात के पिछले पहर में स्वप्न टूटा । दीप की लौ आखिरी-सा उस समय था भोर का तारा टिमकता । चाँद की टूटी लहर में तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …) --बार-बार मैंने यह सोचा : चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।
एक लड़ाई लड़ी, खतम की
आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से
है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न ।
तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।
लेकिन पाता हूं-
अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष ।
जो पहले था, वही आज हैं-
वही स्वप्न, वे ही आदर्श ।
2 (हाय । कैसी थी कहानी । अश्रु के भीगे कणों से, प्यार के मीठे क्षणों से रची वह कैसी कहानी । कौन जाने कब सुनी थी, कहाँ की थी, और किसकी ? किन्तु अब भी बची वह कैसी कहानी ?…)
-कितनी बार किया यह निश्चय : अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ । एक उम्र थी: नहीं रही । अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे, बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।
लेकिन यह सब नहीं हुआ । उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर, ‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा । सहज बनूँ कैसे ? उधेड़बुन यही शुरु से थी : अब भी ।
3 (कितनी अकेली राह थी, कैसा अकेला साथ था । बेहद थके, डगमग क़दम । लेकिन कहाँ वह हाथ था— जो बढे आगे, थाम ले । …)
--हुआ नहीं कोई भी अपना । नहीं टूटता पर वह सपना । बार-बार जो सोच रहे थे हम कि अकेले ही रह लेंगे । चलो, अकेले ही रह लेंगे ।
बार-बार वह झूठा निकला : एक न एक चाँद मुस्काया किया, ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।
4 (राग का जादू हिरन पर छा गया । वह कुलाँचें मारनेवाला खिंचा-सा आ गया…)
--कई बार यह हुआ कि अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं । मोहक जो संगीत कहाता : मुझको
सिर्फ़ उबाता है ।
गहराई से खींच, धरातल पर मुझको
ले आता है । लेकिन जब भी, जब भी काँपे थरथर-थरथर तार, और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार
काँपने लगे होंठ हर बार, धड़कने लगे प्राण के तार ।
5 (एक घर था और उसके द्वार में ताला जड़ा था । बन्द घर को कौन खोले । स्तब्धता में कौन बोले । …)
--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक
इनसे बाहर हटकर, उठकर किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की जो साध बड़ी थी, उसके आगे एक अजब दीवार…
1 …एक बार का सोचा-समझा बार-बार क्यों सच लगता ? बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी क्यों उसमें मन रमता । आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?
2 स्वप्न वहाँ हैं और यहाँ पर परिणति है । कृत्रिम उधर और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?
3 कौन कहाँ से आया इसका तो कुछ भी आभास नहीं । एक मुझीमें इतना सब कुछ था यह भी विश्वास नहीं ।
4 क्यों दुहराया तुमने उसको कहो, उसे क्यों दुहराया ? भूल नहीं पाये क्यों इसको ? भूलो, अब तो भूलो सब ।
5 जो दीवारें थीं लोहे की, वे दीवारें हैं लोहे की, जैसी थीं वे, वैसी ही हैं । -ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे । पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा। लेकिन लौटे हुए व्यक्ति के लिये शिखर तक जाना उतना दुर्लभ नहीं रहा ।
आओ, हम फिर से जियें
आओ, हम फिर से जियें ।
बहता-बहता मेघखंड जो पहुँच गया है वहाँ क्षितिज तक लौटा लायें उसे, कहें : ‘ओ, फिर से बहो । मन, मन्थर, मृदु गति से … शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत । जो कथा कही थी, फिर से कहो ।‘
और … अपलक, अविचल हम उसे निरखते रहें, पियें ।
आओ, हम फिर से जियें ।
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(प्रकाशन विषयक सूचना –वर्ष 1958, प्रकाशक –राजकमल,दिल्ली,पटना आदि, पृष्ठ-80,आकार डिमाई,मूल्य-तीन रुपये, कापीराइट,1958,अजितकुमार,युगमन्दिर, उन्नाव, वर्तमान पता- 166, वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034, फ़ोन-27314369, मो0 9811225605)