भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जंगल में पागल हाथी और ढ़ोल / नीरज नीर
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:52, 12 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीरज नीर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पेट भर रोटी के नाम पर
छिन ली गयी हमसे
हमारे पुरखों की जमीन
कहा जमीन बंजर है।
शिक्षा के नाम पर
छिन लिया गया हमसे
हमारा धर्म
कहा धर्म खराब है ।
आधुनिकता के नाम पर
छिन ली गयी हमसे
हमारी हजारों साल की सभ्यता
कहा हमारी सभ्यता पिछड़ी है
अपने जमीन, धर्म और सभ्यता से हीन,
जड़ से उखड़े,
हम ताकते हैं आकाश की ओर
गड्ढे में फंसे सूंढ उठाए हाथी की तरह।
जंगल से पागल हथियों को
भगाने के लिए
बजाए जा रहे हैं ढ़ोल।