भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कभी-कभी तो / गोपीकृष्ण 'गोपेश'
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:00, 14 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपीकृष्ण 'गोपेश' |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कभी-कभी तो रोते दिल को
हंसकर बहलाना होता है !
मानस ने अपनाई पीड़ा,
दुनिया ने हंसना अपनाया,
पत्थर गला, बहा आंसू बन
गिरी काँपा सागर घबराया !
सूखे सर में सागर भरकर
तट तक लहराना होता है !
कभी-कभी तो रोते दिल को
हंसकर बहलाना होता है !!
फिर, रोना भी इस जीवन पर
मानव की कितनी कमज़ोरी,
पुण्य करूँ मैं खुले खज़ाने
पाप करूँ मैं चोरी-चोरी !
पाप-पण्य की अग्नि-राह पर
जल-मर जी जाना होता है !
कभी-कभी तो रोते दिल को
हंसकर बहलाना होता है !!
मुरझाई कलिका पर, सोचो,
मैंने कैसे फूल चढ़ाए,
आज लाद कन्धों पर लाया
पहले न कभी हाथ बढ़ाए !
शव की अन्तिम मुस्कानों पर
बरबस मुस्काना होता है !
कभी-कभी तो रोते दिल को
हंसकर बहलाना होता है !