भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपराध / गोपीकृष्ण 'गोपेश'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:18, 17 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपीकृष्ण 'गोपेश' |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कौन सा अपराध मेरा,
विश्व क्यों पीड़ा उभारे !

कण्टकों की शरण ली
तज सुमन-सुरभित राह मैंने,
दुख न जाए दिल किसी का
आह ! पी ली ’आह’ मैंने !
साधना-पथ का पथिक हूँ,
सान्त्वना का भी न इच्छुक,
दग्ध उर की तप्त श्वासों से
स्वयं मैं ही जला रे !
कौन सा अपराध मेरा,
विश्व क्यों पीड़ा उभारे !!

डूबती है नाव मेरी,
दूर हैं दोनों किनारे,
गति न विधि की टूट जाए,
हाथ भी मैंने न मारे !
मैं न बोला, मैं न डोला,
कौन सी फिर क्षति गई हो,
देख जो मैंने लिए हैं,
हो गए अंगार तारे !
कौन सा अपराध मेरा,
विश्व क्यों पीड़ा उभारे !!

बीत जो सुख के गए दिन
अब न फिर से आ सकेंगे,
अश्रुकण मेरे किसी का
दिल न अब पिघला सकेंगे !
यह उजाला, भाग्यवाला —
मैं नहीं हूँ, जानता हूँ,
चिर-निराश्रित आज कैसा
आसरा किसके सहारे !
कौन सा अपराध मेरा,
विश्व क्यों पीड़ा उभारे !!