भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पतझड़ का षड़यंत्र फल गया / ईश्वर करुण
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:33, 25 मई 2020 का अवतरण
यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
पतझड़ का षड़यंत्र फल गया
हिया जुड़ाया काँटों का
मन के ऊपर राज हो गया
निर्वासित सन्नाटों का
जाने क्या कह दिया तुम्हें , उस दिन मैं ने कचनार तले
कोस-कोस उस एक घड़ी को कितने दिन और शाम ढले
अब तक खुला नहीं ताला
क्यों तेरे हृदय कपाटों का
भँवरे तो प्रतिद्वन्द्वी थे ही , फूल भी बैरी बन बैठे
तान भृकुटियाँ तितली भागी ,कोयल -पपिहे तन बैठे
नौकाएँ विद्रोह कर गयीं,
साथ दे दिया घाटों का
मान भी जाओ ,छोड़ भी दो तुम ओढ़े हुए परायापन
अच्छा नहीं कि जेठ के हाँथों बेचें हम अपना सावन
मिले प्रीत तो खिल जाता है,
तन -मन मूर्ख-चपाटों का