भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुश्किल समय / बैर्तोल्त ब्रेष्त / अनिल जनविजय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:14, 29 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= बैर्तोल्त ब्रेष्त |अनुवादक=अनिल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अपनी मेज़ के पास खड़े होकर
खिड़की से झाँका मैंने बाहर
अपनी बग़ीचे में
अचानक दिखाई दी मुझे
काले मकोये की झाड़ी ।
लटके हुए थे
झाड़ी पर
लाल और काले मकोये ।
और मुझे याद आ गए
अपने बचपन के वे दिन
जब आउग्सबुर्ग में रहते थे हम
वहाँ भी हमारे घर के बाहर
लगा हुआ था
मकोए का एक झाड़ ।
मैं देर तक खड़ा
उस झाड़ी को ताकता रहा
और बचपन के उन दिनों को
याद करता रहा ।
मन में आई यह बात —
क्या जाऊँ और लेकर आऊँ चश्मा
ताकि ध्यान से देख सकूँ
झाड़ी की लाल शाखाओं पर फल रहे
उन लाल-काले मकोयों को ?
रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय