भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पास पास थे चुभे, गड़े / देवेन्द्र आर्य

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:23, 18 जून 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पास पास थे चुभे, गड़े।
दूर दूर थे, नए लगे।

शहर भी अजीब है तेरा
भीख दी तो जात पूछ के।

अपने ग़म में जल रही है वो
जाइए न हाथ सेंकिए।

रात जैसे लिख रही हो ख़त
दिन कि जैसे खो गए पते।

इश्क हमने इस तरह किया
जैसे कोई सीढ़ियाँ चढ़े।

डिगरियाँ कराहने लगीं
क्या बिके कि नौकरी लगे।

औरतें कठिन न हों तो मर्द
एक बार पढ़ के छोड़ दे।